Wednesday, August 31, 2016

Junbishen 754

Nazm

शकर पारे 

आओ कुछ सच्ची इबारत पढ़ लें ,
सतह पर तैरें न, गहरे डूबें ,
दिल में गूंगे से पड़े, दिल बोलें ,
कानों की बहरी समाअत जागें .

जुन्बिशें लब की खुली आँख चुनें ,
हम दलीलों के फटे होंट सिएँ ,
तन में बैठा है नया मन, ढूँढें ,
जश्त इक लेके, बुलंदी को छुएँ .

दिल अगर चाहे तो नाचें गाएं ,
इन से उनसे न कभी शर्माएं,
साथ पागल के कभी बौराएँ ,
खोखले पन को ख़ला भर पाएं .

हम अकेले हैं कितने खुद देखें ,
फिर ज़माने से अपना हिस्सा लें ,
ना मुनासिब है कि छीने झपटें ,
बाक़ी औरों के लिए रहने दें .

شکر پارے 

آؤ کچھ سچی عبارت دیکھیں 
سطح پر تیریں نہ گہرے ڈوبیں 
دل میں خاموشی پئے دل بولیں 
کانوں میں سوئی ہوئی حس جاگیں ٠

جنبش لب کو ، کھلی آنکھ چنیں 
ہم دلیلوں کے پھٹے ہونٹ سیں 
تن میں بیٹھا ہے بھلا من ، ڈھونڈھیں 
جست اک لیکے ، بلندی کو چھیں ٠

دل اگر چاہے تو ، ناچیں گاہیں 
ان سے ان سے نہ کبھی شرما یں 
ساتھ پاگل کے کبھی بورایں 
کھوکھلے پن کی خلا بھر جایں ٠

ہم اکیلے ہیں اسے خود سمجھیں 
اپنے حق بھر کو ہی تسلیم کریں 
نہ مناسب ہے کہ چھینیں جھپٹیں
باقی اوروں کے لئے رہنے دن ٠

آؤ کچھ سچی عبارت دیکھیں 
سطح پر تیریں نہ گہرے ڈوبن ٠ 

************

Monday, August 29, 2016

jUNBISHEN 753


नज़्म 
फ़िक्र ए आक़बत  

ये कौन शख्स है, जो झुर्रियों का पैकर है ,
कमर को दोहरी किए, बर्फ़ जैसी सुब्ह में ,
सदा अज़ान की सुन कर, वह जानिब ए मस्जिद ,
रुकु सुजूद की हरकत को, भागा जाता है।

वह कोई और नहीं , देखो ग़ौर से उसको ,
जो अपने फेन में था यकता , वह मिस्त्री है वह ,
लड़कपने में वह ग़ुरबत की मार खाए है ,
जवान था कभी तो गाज़ी ए मशक़्क़त था .

नहीं सुकून ए दरूं अब भी उसकी क़िस्मत में ,
खबर फ़लक़ की उसे अब सताए रहती है ,
बड़ी ही ज़्यादती की है , ये जिसने भी की हो ,
नहीफ़ बूढ़े को, ये फ़िक्र ए आकबत दे के . 

فکر عاقبت

وہ کون شخص ہے ، جو جھرریوں کا پیکر ہے 
کمر کو دوہری کئے ، برف جیسی صبح میں 
صدا اذان کی سن کر وہ جانب مسجد
رقوع سجود کی حرکت کو بھا گا جاتا ہے ٠

وہ کوئی اور نہیں ، دیکھو غور سے اسکو 
جو اپنے فن میں تھا یکتا ، وہ مستری ہے وہ 
لڑکپنے میں وہ غربت کی مار کھاۓ ہے 
جوان تھا کبھی تو ، غازی ے مشققت تھا ٠

ضعیف ہے تو لائق شریف بیٹے ہیں 
نہیں سکون دروں اب بھی اسکی قسمت میں 
خبر فلق کی اسے اب ستاۓ رہتی ہے 
بڑی ہی زیادتی کی ہے ، یہ جسنے بھی کی ہو 
نحیف بوڑھے کو ، یہ فکر عاقبت دیکر ٠  

Friday, August 26, 2016

Junbishen 752




ग़ज़ल

जब तक रवा रखोगे, मेरे साथ तुम बुख़ालत,
तब तक न कर सकूँगा, मेरे यार मैं क़िनाअत।

 बेदारियां ये कैसी? कि खिंचता है सम्त ए माज़ी ,
बेहोशी ही भली थी, तेरा सोना ही ग़नीमत .

क़ुर्बानियों का जज़्बा, मज़ाहिब की तश्नगी है ,
खूराक इनको भाए, वफ़ादारों की शहादत 
.
 लिपटा हुवा जवाँ है, मज़ारों के देवता से, 
शर्मिंदा जुस्तुजू है, हमागोश है अक़ीदत .

मुमकिन नहीं की ख़ालिक़, अगर हो तो मुन्तक़िम हो, 
होगा अगर जो होगा , माँ बाप की ही सूरत. 

मेरी तरह ही तुम भी, हटा लोगे बोझ दिल का ,
क्या शय है फ़िक्र ए मुंकिर, ज़रा समझो इसकी क़ीमत. 

غزل 

جب تک روا رکھو گے ، میرے ساتھ تم بخا لت 
تب تک نہ کر سکون گا ، میرے یار میں قناعت 

بیداریاں یہ کیسی کہ ، کھنچتا ہے سمت ماضی 
بے ہوشی ہی بھلی تھی ، ترا سونا ہی غمیمت 

قربانیوں کا جذبہ ، مذاہب کی تشنگی ہے 
خوراق انکو بھاۓ ، وفا داروں کی شہادت 

لپٹا ہوا جواں ہے ، مزاروں کے دیوتا سے
شرمندہ جستجو ہے ، ہمّہ گوش ہے عقیدت 

ممکن نہیں کہ خالق ، اگر ہو تو منتقم ہو 
ہوگا اگر جو ہوگا ، ماں باپ کی ہی صورت 

میری طرح ہی تم بھی ، ہٹا لوگے بوجھ دل کا 
کیا شے ہے فکر منکر ، ذرا سمجھو اسکی قیمت 



Wednesday, August 24, 2016

Junbishen 751



ग़ज़ल

आओ चलें बहार में, बैठे हैं में, बैठे हैं इंतज़ार में ,
रस्म ए कुहन इजाज़तें, डूबी हुई हैं ग़ार में .

माना कि आप हैं हसीं, माना जवान साल हैं ,
मैं भी खड़ा हूँ देर से, आ जाइए क़तार में ,

लिख्खे हुए वरक़ जो, छीटें ज़रा सी पड़ गईं ,
माने सभी बदल गए, देखिए चश्म ए यार में . 

उनको जिहद की दाद दो, जिनको खुदा ने सब दिया ,
उनके लिए खुदाई है, उनके ही अख्तियार में .

नेक अमल इबादतें, उज्र ओ जज़ा के वास्ते ,
अपने तईं वह कर चुका, बैठा है इंतज़ार में . 

सोने दे अब अना को तू, थक सी गईं हैं ये जुनैद,
राह फ़रार तू भी ले, ख़तरा है इक़्तेदार में .


غزل 

آؤ چلیں بہار میں ، بیٹھے ہیں انتظار میں 
رسم کہن اجازتیں ، ڈوبی ہی ہیں غار میں 

مانا کہ آپ ہیں حسیں ، مانا جوان سال ہیں 
میں بھی کھڑا ہوں دیر سے، آ جائیے قطار میں 

لکھکھے ہوئے ورق پہ جو ، چھیٹیں ذرا سی پڑ گیں 
معنی سبھی بدل گے ، دیکھئے چشم یار میں 

انکی جہد کی داد دو ، جنکو خدا نے سب دیا 
انکے لئے  خدائی ہے ، انکے ہی اختیار میں 

نیک عمل ، عبادتیں ، اجر و جزا کے واسطے 
اپنے تئیں وہ کر چکا ، بیٹھا ہے انتظار میں 

سونے دے اب انا کو تو ، تھک سی گئی ہیں یہ جنید 
راہ فرار تو بھی لے ، خطرہ ہے اقتدار میں 

Monday, August 22, 2016

Junbishen 750




ग़ज़ल

अब मेरी उस से बोल चाल नहीं,
है सुकूं, कोई क़ील ओ क़ाल नहीं . 

मेरी उस से अजब लड़ाई है, 
सर में तलवार, दिल में बाल नहीं . 

तेरी रिश्वत की तर बतर रोटी,
मैं भी खाऊँ, कोई सवाल नहीं .

मैंने माना कि तेरा दीं सही,
हाँ मगर आज हस्ब ए हाल नहीं .

तालिबान ए ख़ुदा न तोड़ो बुत, 
अपने पुरखों का कुछ ख़याल नहीं .

हद से करता नहीं तजाउज़ वह ,
कहाँ मुंकिर में एतदाल नहिन. 


غزل 

اب مری اس سے بول چال نہیں 
ہے سکوں ، کوئی قیل قال نہیں 

میری اس سے عجب لڑائی ہے 
سر میں تلوار ، دل میں بال نہیں 

تری رشوت کی تر بتر روٹی 
میں بھی کھاؤں ، کوئی سوال نہیں 

میں نے مانا کہ تیرا دیں ہے صحیح 
ہان ! مگر آج حسب حال نہیں 

طالبان خدا نہ توڑو بت 
تم کو پرکھوں کا کچھ خیال نہیں 

حد سے کرتا نہیں تجاوز وہ 
کہاں منکر میں اعتدال نہیں 

Friday, August 19, 2016

Junbishen 749



ग़ज़ल

हरगिज़ न परेशां हों, जो इलज़ाम लगा हो,
जब तक कि हक़ीक़त में, तुम्हारी न ख़ता हो .

जो बातें बड़ों की तुम्हें अच्छी न लगी हों,
बेजा है की छोटों को, वही तुमने कहा हो. 

वह मौत की तफ़सीर बताने में है माहिर,
जिसने कि कभी ज़िन्दगी, समझा न जिया हो. 

जज़्बात के कानों में ज़रा उंगली लगा ले, 
जब खूं में तेरे, आग कोई घोल रहा हो. 

वह बोझ गुनाहों का,उठाए है कमर पे,
अब ढूंढ रहा है कि कहीं कोई गढ़ा हो. 

नस्लों का तेरे चाँद सितारों पे जनम हो ,
जन्नत की नहीं, हक में मेरे ऐसी दुआ हो .

غزل 
ہرگز نہ پریشان ہوں ، کوئی بھی سزا ہو 
جب تک کہ حقیقت میں تمہاری خطا نہ ہو ٠ 

جو بات بڑوں کی تمہیں اچھی نہ لگی ہو 
بے جہ ہے کہ چھوٹوں کو وہی تم نے کہا ہو ٠

وہ موت کی تفسیر بتانے میں ہے ماہر 
جس نے نہ کبھی زیست کو، سمجھا نہ جیا ہو ٠ 

ڈھو ڈھو کے گناہوں کو کمر جھک جو گئی ہے
اب ڈھونڈھ رہا ہے کہ کہیں کوئی گڑھا ہو ٠ 

نسلوں کا تیرے چاند ستاروں پہ جنم ہو
جنّت کی نہیں ، حق میں مرے ایسی دعا ہو ٠ ٠ 

Wednesday, August 17, 2016

Junbishen 748






ग़ज़ल

हर गाम रब के डर से सिहरने लगे हैं ये,
खुद अपनी बाज़ ए गश्त से डरने लगे हैं ये। 

गर्दानते हैं शोखी के लम्हात को गुनाह,
संजीदगी की घास को चरने लगे हैं ये। 

रूहानी पेशवा हैं कि खुद रूह के मरीज़,
पैदा नहीं हुए थे कि मरने लगे हैं ये. 

हैं इस लिए ख़फ़ा, मैं कभी नापता नहीं,
वह कार ए ख़ैर जिसको कि करने लगे हैं ये। 

खुद अपने जलवा गाह की पामालियों के बाद ,
हर आईने पे रुक के संवारने लगे हैं ये। 

मुंकिर ने फेंके टुकड़े ख़यालों के उनके गिर्द,
माक़ूलियत को पा के ठहेरने लगे हैं ये. 

غزل 

ہر گام رب کے ڈر سے، سہر نے لگے ہیں یہ  
خود اپنی باز گشت سے، ڈرنے لگے ہیں یہ

گردانتے ہیں، شوخی کے لمحات کو گناہ 
سنجیدگی کی گھاس کو، چرنے لگے ہیں یہ 

روحانی پیشوا ہیں، کہ خود روح کے مریض
پیدا نہیں ہوئے تھے، کہ مرنے لگے ہیں یہ 

ہیں اس لئے خفا ، میں کبھی ناپتا نہیں
وہ کار خیر جسکو کہ ، کرنے لگے ہیں یہ 

خود اپنے جلوہ گاہ کے ، پامالیوں کے بعد 
ہر آئینے پہ روک کے، سنورنے لگے ہیں یہ

منکر نے پھینکے ٹکرے، خیالوں کے ان کے گرد 
معقولیت کو پا کے ، ٹھہرنے لگے ہیں یہ 


Monday, August 15, 2016

Junbishen 747




ग़ज़ल

वह्म का परदा उठा क्या, हक था सर में आ गया . 
दावा ए पैगंबरी हद्दे बशर में आ गया .

खौफ़ के बेजा तसल्लुत ने बग़ावत कर दिया ,
डर का वह आलम जो ग़ालिब था, हुनर में आ गया .

याद ए जाना तक थी बेहतर, आक़बत की फ़िक्र से ,
क्यों दिले ए नादाँ, तू ज़ाहिद के असर में आ गया .

जितनी शिद्दत से तहफ़्फ़ुज़ की दुआ कश्ती में थी ,
उतनी तेज़ी से सफ़ीना, क्यों भंवर में आ गया .

छोड़ कर हर काम, मेरी जान तू लाहौल पढ़ ,
मंदिरो मस्जिद का शैतां फिर नगर में आ गया .

एक दिन इक बे हुनर बे इल्म और काहिल वजूद ,
दीन की पुड़िया लिए, मुंकिर के घर में आ गया .

غزل
 
وہم کا پردہ اٹھا کیا، حق تھا سر میں آ گیا
دعوه ے پیغمبری، حد بشر میں آ گیا ٠

خوف کے بے جہ تسلط نے بغاوت کر دیا
ڈر کا وہ عالم جو غالب تھا، ہنر میں آ گیا ٠

یاد جاناں تک تھا بہتر، عاقبت کی فکر سے
کیوں دل ناداں تو زاہد کے اثر میں آ گیا ٠

جتنی شدّت سے دعا وں کی صدا ، کشتی میں تھی
اتنی تیزی سے سفینہ ، کیوں بھنور میں آ گیا ٠

چھوڑ کر ہر کام ، میری جان تو لاحول پڑھ
مندرو مسجد کا شیطاں ، پھر نگر میں آ گیا ٠

ایک دن اک بے ہنر، بے علم اور کاحل وجود
لے کے پڑ یہ دین کی، 'منکر' کے گھر میں آ گیا ٠٠

Friday, August 12, 2016

Junbishen 746



ग़ज़ल

मंजिल है पास, पुल का ज़रा एहतराम हो,
बानी पे इसके थोड़ा दरूद ओ सलाम हो. 

गाँधी को कह रही है, वह शैतान का पिसर,
जम्हूरियत के मुंह पे, ज़रा सा लगाम हो. 

इतिहास के बनों में, शिकारी की ये कथा ,
इसका पढ़ाना बंद हो, ये क़िस्सा तमाम हो. 

माल ओ मता ए उम्र के, सिफ्रों को क्या करें ,
गर सामने खड़ी ये हक़ीक़त की शाम हो. 

कुछ इस तरह से फतह, हमें मौत पर मिले,
सुकराती एतदाल हो, मीरा का जाम हो. 

कितनी कुशादगी है शराब ए हराम में ,
सर पे चढ़ा जूनून ए अकीदा हराम हो. 

غزل
منزل ہے پاس پل کا ذرا احترم ہو 
بانی پہ اس کے تھوڑا درود و سلام ہو ٠ 

گاندھی کو کہہ رہی ہے وہ شیطان کا پسر 
جمہوریت کے منھہ پہ زرا سی لگام ٠ 

تاریخ کے صفحات پر ظالم کی داستاں 
اسکا پڑھنا بند ہو، قصّہ تمام ہو ٠ 

مال و متاۓ عمر کے سفروں کو کیا کریں 
گر سامنے کھڑی یہ حقیقت کی شام ہو ٠ 

اس طرح کی فتح کہ مجھے موت پر ملے 
سقراتی عتدال ہو ، میرا کا جام ہو ٠ 

Wednesday, August 10, 2016

Junbishen 745




ग़ज़ल

यह गलाज़त भरी रिशवत,
लग रहा खा रहे नेमत.

बैठी कश्ती पे माज़ी के,
फँस गई है बड़ी उम्मत.

कुफ्र ओ ईमाँ का शर लेके,
जग में फैला दिया नफरत.

सर कलम कर दिए कितने,
लेके इक नअरा ए वहदत.

सर बुलंदी हुई कैसी?
आप बोया करें वहशत.

धर्म ओ मज़हब हो मानवता,
रह गई एक ही सूरत.

माँ ट्रेसा बनीं नोबुल,
खिदमतों से मिली अज़मत.

हो गया हादसा आखिर,
हो गई थी ज़रा हफ्लत.

खा सका न वोह 'मुंकिर",
खा गई उसे है उसे दौलत.
*****
*माज़ी= अतीत *उम्मत=मुस्लमान *शर=बैर *वहदत=एकेश्वर


غزل

یہ غلاظت بھری رشوت 
لگ رہا کھا رہے ہو نعمت ٠ 

بیٹھی کشتی پہ ماضی کی 
پھنس گئی ہے بڑی امّت ٠

کفر ایمان کا شر لے کے 
جگ میں پھیلا دیا نفرت ٠ 

سر قلم کر دئے کتنے 
لے کے اک نعرہ ے وحدت ٠ 

سر بلندی ہوئی کیسے 
آپ بویا کریں دہشت ٠ 

ماں ٹریسا بنی نوبل 
خدمتوں ملی عظمت ٠ 

ہو گیا حادثہ آخر 
ہو گئی تھی ذرا غفلت ٠ 

دھرم و مذہب ہومانوتا 
رہ گئی ایک ہی صورت ٠ 

کھا سکا نہ وہ منکر
کھا گئی اسے دولت ٠ 

Tuesday, August 9, 2016

Junbishen 744

ghazal


सुकूने क़ल्ब को, दिल की हसीं परी तो मिले,
तेरे शऊर को, इक हुस्ने दिलबरी तो मिले.

नफ़स नफ़स की बुख़ालत  को ख़त्म कर देंगे,
तेरे निज़ाम में, पाकीज़ा रहबरी तो मिले.

क़िनाअतें तेरी, तुझ को सुकूं भी देदेंगी,
कि तुझ को सब्र, बशकले क़लन्दरी तो मिले.

जेहाद अब नए मअनो को ले के आई है.
तुम्हें ''सवाब ओ ग़नीमत'' से, बे सरी तो मिले.

वहाँ पे ढूँढा तो, बेहतर न कोई बरतर था,
फ़रेब खुर्दाए एहसास ए बरतरी तो मिले.

तू एक रोज़ बदल सकता है ज़माने को,
ख़याल को तेरे 'मुंकिर" सुख़नवरी तो मिले.

*****

غزل 
سکون قلب کو دل کی حسین پری تو ملے
ترے شعور کو اک حسن دلبری تو ملے ٠ 

نفس نفس کی بخلعت کو ترک کر دینگے 
ترے نظام میں پاکیزہ رہبری تو ملے ٠

قناعتیں تری تجھکو سکوں بھی دیدیں گی 
کہ تجھ کو صبر بشکل قلندری تو ملے ٠

جہاد اب نیے معنوں کو لے کے آیا ہے 
تمہیں ثواب و غنیمت سے بے سری تو ملے ٠

وہاں پہ ڈھونڈھا تو ، بہتر نہ کوئی برتر تھا 
فریب خوردہ ے احساس برتری تو ملے ٠

تو ایک روز بدل سکتا ہے زمانے کو، 
خیال کو ترے منکر سخن وری تو ملے ٠

Friday, August 5, 2016

Junbishen 743

Ghazal
खुद से चुनी अज़ीयत 
रोज़ा नफ़िल तहारत 

तामीर है नफी में 
है इक जुनूं इबादत 

दो बीवी तेरह बच्चे 
अल्लाह तेरी रहमत 

सब्र ओ रज़ा का चेहरा 
दर पर्दा ए बुखालत 

बे तुख्म का बशर था 
सुबहान तेरी क़ुदरत 

इज्ज़त दे चाहे ज़िल्लत 
मल्हूज़ हो दयानत 

मशहूर हो रहा है 
मुंकिर बफ़ज्ल ए तोहमत 

غزل 

خود سے چنی اذیت 
روزہ ، نفل طہارت ٠ 

تعمیر ہے نفی میں 
ہے اک جنوں عبادت ٠ 

دو بیوی تیرہ بچے 
الله تیری رحمت ٠ 

صبر و رضا کا پیکر 
در پردہ ہے بخالت ٠ 

مفلوج ہو گے ہو 
کیوں بھا گئی قناعت ٠ 

بے تخم کا بشر تھا 
سبحان تیری قدرت ٠ 

عزت دے چاہے ذلّت 
ملحوظ ہو دیانت ٠ 

مشہور ہو رہا ہوں
منکر بفضل تہمت 

Wednesday, August 3, 2016

Junbishen 742




ghazal


इक लम्हा लग्ज़िसों का अज़ाब ए हयात है,
ग़लबा है इक ख़ला का , भरी कायनात है. 

पाबंदियों की सुर्ख़ लकीरें लिए हुए ,
रातों को दिन कहे, तो कहे दिन को रात है .

बस है बहुत लतीफ़, हक़ीक़त को छोडिए ,
इन झूटे तर्जुमों में, बला की सबात है .

आइना तेरे दिल का, निगाहों में नस्ब है ,
सुनने की बात, और न कहने की बात है. 

मुन्सिफ की मुजरिमो की, हम आगोश हैं जड़ें, 
इन्साफ़ मर चुका है, ये क़ौमी वफ़ात है. 

ऐ डाकुओ! तुम्हारे भी अपने उसूल हैं, 
हातिम को लूट लो, बड़ी नाज़ेबा बात है. 

***********

اک لمحہ زندگی کا، عذاب حیات ہے 
غلبہ ہے ، اک کھلا ہے ، بھری کاینات ہے 

پابندیوں کی سرخ ، لکیریں لئے ہوئے 
راتوں کو دن کہوں، تو کہوں دن کو رات ہے 

بس ہیں بہت لطیف، حقیقت کو چھوڑئے 
ان جھوٹے ترجموں میں، بلا کی ثبات ہے 

آئینہ تیرے دل کا، نگاہوں میں نسب ہے 
سننے کی بات ، اور نہ کہنے کی بات ہے 

منصف کی مجرموں سے ہم آگوش ہے جڑیں 
انصاف مر چکا ہے، یہ قومی وفات ہے 

ایے ڈاکوو! تمہارے بھی، اپنے اصول تھے 
حاتم کو لوٹ لو، بڑی نازیبہ بات ہے 

Junbishen 720



Muskurahaten
नसीहतें 

मत आना इन के जाल में ऐ मेरे भतीजे ,
अक्साम ए खुदा सब हैं क़यासों के नतीजे .
जो बात तुझे लगती हो फ़ितरत के मुखालिफ़ ,
उस बात पे हरगिज़ न मेरे लाल पसीजे .
जालों को बिछाए हैं ये रिश्तों के शिकारी ,
बहनें हों कि भाई हों कि साले हों कि जीजे .
मिट्टी को निजी चाक के तू  कर दे हवाले ,
माँ बाप की मुट्ठी तो रहेगी तुझे मींजे .
दिखला दे ज़माने को तेरा रंग ही जुदा है ,
टक्कर में तेरे कोई भी दूजे हैं न तीजे .
*
نصیحتیں 
مت آنا انکے جال میں، ائے میرے بھتیجے 
اقسام خدا ہیں یہ، قیاسوں کے نتیجے 
جو بات تجھے لگتی ہو، فطرت کے مخالف 
اس بات پہ ہرگز، نہ کبھی لعل پسیجے ٠ 
سو جال بچھاۓ ہیں، یہ رشتوں کے شکاری 
بہنیں ہوں کہ بھائی ہوں، کہ سالے ہوں کہ جیجے ٠ 
مٹی کو نجی چاک کے تو کردے حوالے 
ماحول کی مٹٹھی تو، رہیگی تجھے مینجے ٠ 
دکھلا دے زمانے کو ترا رنگ ہی جدا ہے 
ٹکّر میں تیرے کوئی بھی، دوجے ہیں نہ تیجے ٠ 

Monday, August 1, 2016

Junbishen 724


Muskurahaten

टक्कर 

तबअ आज़ाद दहकाँ ,शेख़ ए बातिल का था वाज़ ,
मैं उसे सौ ऊँट दूंगा , जो पढ़े सौ दिन नमाज़ .
पा के लालच ऊँट का, दहकाँ वह राज़ी हो गया ,
गोया अगले रोज़ से, पाजी नमाज़ी हो गया .

सौ दिनों के वाद आए शेख जब उसके यहाँ ,
बोले बीटा पास मेरे ऊँट और घोडे कहाँ ,
तुझको कर देना नमाज़ी, बस मुझे दरकार था ,
राह में मस्जिद के बस, तू ही खटकता ख़ार था .
शेख़ की वादा खिलाफ़ी पर था उसका ये जवाब ,
बे वज़ू के मैंने भी, टक्कर लगाए हैं जनाब .
***

ٹکّر 

تھا طبع آزاد دہقان ، شیخ باطل کا تھا واعظ 
"میں اسے سو اونٹ دونگا ، جو پڑھے سو دن نماز"  
کر کے لالچ اونٹوں کا، وہ شخص راضی ہو گیا
گویہ اگلے دن سے، وہ پاجی نمازی ہو گیا ٠

  سو دنوں کے بعد آئے، شیخ جب اسکے یہاں 
بولے بیٹا پاس میرے، اونٹ اور گھوڑے کہاں ٠ 
تجھ کو کر دینا نمازی، بس مجھے درکار تھا
راہ میں مسجد کے اک، تو ہی کھٹکتا خار تھا ٠ 
شیخ کی وعدہ خلافی پر، یہ اسکا تھا جواب 
بے وضو کے میں نے بھی ، ٹکّر لگاۓ ہیں جناب ٠ 

*************