Thursday, February 23, 2012

ग़ज़ल - - - ज़िन्दगी है कि मसअला है ये ग़ज़ल - - - ज़िन्दगी है कि मसअला है ये





ज़िन्दगी है कि मसअला है ये,
कुछ अधूरों का सिलसिला है ये।

आँख झपकी तो इब्तेदा है ये,
खाब टूटे तो इन्तहा है ये।

वक़्त की सूईयाँ ये सासें हैं,
वक़्त चलता कहाँ रुका है ये।

ढूँढता फिर रहा हूँ खुद को मैं,
परवरिश सुन कि हादसा है ये।

हूर ओ गिल्मां, शराब, है हाज़िर,
कैसे जन्नत में सब रवा है ये।

इल्म गाहों के मिल गए रौज़न,
मेरा कालेज में दाखिला है ये।

दर्द ए मख्लूक़ पीजिए "मुंकिर"
रूह ए बीमार कि दवा ये हो।
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*गिल्मां=दस *रौज़न =झरोखा * मख्लूक़=जीव

Thursday, February 16, 2012

ग़ज़ल - - -गर एतदाल हो तो चलो गुफ्तुगू करें





गर एतदाल हो तो चलो गुफ्तुगू करें,
तामीर रुक गई है इसे फिर शुरू करें.




इन कैचियों को फेकें, उठा लाएं सूईयाँ,
इस चाक दामनी को चलो फिर रफू करें।




इक हाथ हो गले में तो दूजे दुआओं में,
आओ कि दोस्ती को कुछ ऐसे रुजू करें।




खेती हो पुर खुलूस, मुहब्बत के बीज हों,
फासले बहार आएगी, हस्ती लहू करें।




रोज़ाना के अमल ही हमारी नमाजें हों,
सजदा सदक़तों पे, सहीह पर रुकु करें।




ए रब कभी मोहल्ले के बच्चों से आ के खेल,
क़हर ओ गज़ब को छोड़ तो "मुंकिर"वजू करें.
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*एतदाल=संतुलन *तामीर=रचना *पुर खुलूस=सप्रेम *रुकु=नमाज़ में झुकना *वजू=नमाज़ कि तय्यारी को हाथ मुंह धोना

Thursday, February 9, 2012

ग़ज़ल - - - रिश्ता नाता कुनबा फिरका सारा जग ये झूठा है




रिश्ता नाता कुनबा फिरका सारा जग ये झूठा है,
जुज्व की नदिया मचल के भागी कुल का सागर रूठा है।

ज्ञानेश्वर का पत्थर है, और दानेश्वर की लाठी है,
समझ की मटकी बचा के प्यारे, भाग नहीं तो फूटा है।

बन की छोरी ने लूटा है, बेच के कंठी साधू को,
बाती जली हुई मन इसका, गले में सूखा ठूठा है।

चिंताओं का चिता है मानव, मंसूबों का बंधन है,
बिरला पंछी फुदके गाए, रस्सी है न खूटा है।

सुनता है वह सारे जग की, करता है अपने मन की,
सीने के भीतर रहता है मेरा यार अनूठा है।

लिखवाई है हवा के हाथों, माथे पर इक रह नई,
"मुंकिर" सब से बिछड़ गया है, सब से रिश्ता टूटा है।
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Thursday, February 2, 2012

gazal - - - बहुत सी लग्ज़िशें ऐसी हुई हैं




बहुत सी लग्ज़िशें ऐसी हुई हैं,
कि सासें आज भी लरज़ी हुई हैं.




मेरे इल्मो हुनर रोए हुए हैं,
मेरी नादानियाँ हंसती हुई हैं.




ये क़द्रें जिन से तुम लिपटे हुए हो,
हमारे अज़्म की उतरी हुई हैं.




वो चादर तान कर सोया हुवा है,
हजारों गुत्थियाँ उलझी हुई हैं.




बुतों को तोड़ कर तुम थक चुके हो,
तरक्की तुम से अब रूठी हुई है.




शहादत नाम दो या फिर हलाकत,
सियासत मौतें तेरी दी हुई हैं.


हमीं को तैरना आया न "मुंकिर",
सदफ़ हर लहर पर बिखरी हुई हैं.